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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएं--यह स्वतंत्रता 3



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मध्यान्ह पुलिस का सिपाही विशम्भर के द्वार पर आया। वर्षा अब भी हो रही थी और सड़कों पर पानी खड़ा था। दो सिपाही पाठक को हाथों पर उठाए हुए लाए और विशम्भर के सामने रख दिया। पाठक के सिर से पांव तक कीचड़ लगी हुई और उसकी आंखें ज्वर से लाल थीं। विशम्भर उसको घर के अन्दर ले गया, जब उसकी पत्नी ने पाठक को देखा तो कहा- "यह तुम क्या आपत्ति ले आये हो, अच्छा होता जो तुम इसको घर भिजवा देते।"
पाठक ने यह शब्द सुने और सिसकियां लेकर कहने लगा- "मैं घर जा तो रहा था परन्तु वे दोनों मुझे जबर्दस्ती ले आए।"
ज्वर बहुत तीव्र हो गया था। सारी रात वह अचेत पड़ा रहा, विशम्भर एक डॉक्टर को लाया। पाठक ने आंखें खोलीं और छत की ओर देखते हुए कहा- "छुट्टियां आ गई हैं क्या?"
विशम्भर ने उसके आंसू पोंछे और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसके सिरहाने बैठ गया। पाठक ने फिर बड़बड़ाना शुरू किया-"मां, मां मुझे इस प्रकार न मारो, मैं सच-सच बताता हूं।"
दूसरे दिन पाठक को कुछ चेत हुआ। उसने कमरे के चहुंओर देखा और एक ठण्डी सांस लेते हुए अपना सिर तकिए पर डाल दिया।
विशम्भर समझ गया और अपना मुख उसके समीप लाते हुए कहने लगा- "पाठक, मैंने तुम्हारी मां को बुलाया है।"
पाठक फिर उसी प्रकार चिल्लाने लगा। कुछ घंटों के पश्चात् उसकी मां रोती हुई कमरे में आई। विशम्भर ने उसको मौन रहने के लिए कहा, किन्तु वह न मानी और अपने-आपको पाठक की चारपाई पर डाल दिया और चिल्लाते हुए कहने लगी- "पाठक, मेरे प्यारे बेटे पाठक!"
पाठक की सांस कुछ समय के लिए रुकी, उसकी नाड़ी हल्की पड़ी और उसने एक सिसकी ली।
उसकी मां फिर चिल्लाई- "पाठक, मेरे आंख के तारे, मेरे हृदय की कोयल!"
पाठक ने बहुत धीरे से अपना सिर दूसरी ओर किया और बिना किसी ओर देखते हुए कहा- "मां! क्या छुट्टियां आ गई हैं?"

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